भारत के टीवी न्यूज़ यूनिवर्स पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि एडिटोरियल और प्राइम-टाइम के निर्णय-स्थलों पर कुछ चुनिंदा सोशल ग्रुप्स का प्रभाव अधिक है। हाल के हफ्तों में यह चर्चा तेज हुई, जब दो युवा महिला प्रवक्ताओं ने लगातार डिबेट्स में फैक्ट-बेस्ड काउंटर देकर नैरेटिव पर जोरदार असर डाला। बहस केवल एक या दो चैनलों तक सीमित नहीं रही, बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में Media Caste Representation को लेकर गंभीर सवाल उठे।

इस परिघटना की एक अहम परत यह है कि बहुजन और वंचित तबकों से आई महिलाएं सार्वजनिक मंचों पर पूर्वाग्रहों को पहचानते हुए उन्हें डेटा, नियम और क़ानून की भाषा में चुनौती दे रही हैं। यही वजह है कि Media Caste Representation आज सिर्फ़ एक अकादमिक विषय नहीं रहा, बल्कि चुनाव-पूर्व माहौल में व्यापक सामाजिक मुद्दा बन चुका है।
बहस का केंद्र क्यों बना Media Caste Representation
टीवी न्यूज़ की गेटकीपिंग पर बहस नई नहीं है, पर हालिया घटनाओं ने इसे मुख्यधारा में ला दिया। जिन महिलाओं ने कड़े सवाल उठाए, उन्होंने स्टूडियो फॉर्मैट की पुरानी आदतों को तोड़ते हुए डेटा-ड्रिवन इंटरवेंशन किया। Media Caste Representation का प्रश्न इसीलिए अहम है, क्योंकि अगर कमेंट्री और एजेंडा-सेटिंग में विविधता सीमित रहेगी, तो मुद्दों की प्राथमिकता भी वैसी ही बनेगी।
समाज-नीति, रिज़र्वेशन, कास्ट-सेंसस, जेंडर इक्विटी और मीडिया एथिक्स जैसे विषय तब तक संतुलित ढंग से नहीं उभरते, जब तक कि स्टूडियो में बोलने और तय करने वालों की टीम विविध न हो। यही कारण है कि Media Caste Representation पर अब सिर्फ़ एक्टिविस्ट या स्कॉलर नहीं, बल्कि मुख्य दलों के प्रवक्ता भी स्पष्ट, ऑन-द-रेकॉर्ड पोज़िशन लेने लगे हैं। यह बदलाव दर्शाता है कि संस्थागत विविधता केवल कॉर्पोरेट गवर्नेंस का एंट्री-पॉइंट नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श की शर्त है।
स्टूडियो से सड़क तक: महिलाओं का उभार और नई राजनीतिक परतें
राजनीतिक कैलेंडर में बिहार विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं, ऐसे में चैनल कवरेज और प्राइम-टाइम फ्रेमिंग का महत्त्व और बढ़ जाता है। इसी पृष्ठभूमि में Media Caste Representation की परतें खुलती हैं। एक ओर, महिला प्रवक्ताओं ने स्टूडियो-प्ले-बुक को पढ़ते हुए रेडी रिस्पॉन्स और काउंटर-नैरेटिव की रणनीति अपनाई, तो दूसरी ओर, उन्होंने लोकल इश्यूज़ जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, पलायन और क़ानून-व्यवस्था को बहस के केंद्र में खींचा।
इस नई शैली में टॉकिंग-पॉइंट्स की जगह फैक्ट-शीट और केस-लॉ अक्सर सामने रखे जा रहे हैं। यही तरीका Media Caste Representation को कथा के हाशिये से उठाकर मुख्य धारा में रख देता है, क्योंकि दर्शक देखता है कि कौन-से मुद्दे सहजता से टाले जाते रहे और किन सवालों को अब समय देना पड़ रहा है।
इस उभार का एक सामाजिक मनोविज्ञान भी है। जब हाशिये की आवाज़ें स्क्रीन-टाइम पाती हैं, तो जो दर्शक पहले टीवी से दूरी बना चुके थे, वे भी दोबारा देखने लगते हैं। इससे एडवरटाइज़र इंटरेस्ट और टीआरपी बढ़ती है, जो चैनलों के लिए सिग्नल है कि Media Caste Representation केवल नैतिक आग्रह नहीं, बल्कि मार्केट-लॉजिक से भी मेल खाता है। यहीं से स्टूडियो के भीतर सीट-एट-द-टेबल की असल लड़ाई शुरू होती है, क्योंकि आवाज़ को सिर्फ़ बुलाना नहीं, बल्कि इंटरप्शन, टाइम-अलोकेशन और मॉडरेशन में बराबरी देना भी ज़रूरी है।

मुख्य बहसों के बीच कुछ महिलाओं ने आरोप लगाया कि लाइन-अप से उन्हें हटाने या टॉपिक-स्विच के ज़रिये स्क्रीन-टाइम सीमित करने की कोशिश हुई। इन आरोपों के बाद मीडिया-स्वतंत्रता और एडिटोरियल ऑटोनॉमी पर चर्चा फिर तेज हुई। जो बात नई है, वह यह कि विरोध केवल बयान भर नहीं रहा, बल्कि ऑन-रिकॉर्ड इंटरव्यू, सोशल मीडिया आर्काइव और पब्लिक कैंपेन के रूप में दस्तावेज़ भी बन रहा है। इससे Media Caste Representation एक टिकाऊ जन-बहस बनती दिख रही है, जिसे केवल डेली न्यूज़ साइकिल से दबाया नहीं जा सकता।
अकादमिक और सिविल-सोसायटी रिपोर्ट्स भी इस विमर्श को सुदृढ़ करती हैं। मीडिया न्यूज़रूम में नेतृत्व-स्तर पर दलित, आदिवासी और ओबीसी प्रतिनिधित्व की कमी पर हुए शोध लंबे समय से चेतावनी दे रहे हैं। इसी तरह सोशल मीडिया उपयोग में भी ऊँची जातियों और पुरुषों का झुकाव अधिक पाया गया, जिसका प्रभाव न्यूज़रूम संस्कृति और भर्ती-पद्धतियों पर पड़ता है।
चुनाव के समय यह पैटर्न और स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि एजेंडा-सेटिंग में वही चेहरे, वही फ़ोकस और वही भाषा बार-बार लौट आती है। ऐसे में जब नए प्रवक्ता रिकॉर्डेड फैक्ट्स और कॉन्टेक्स्ट लेकर आते हैं, तो Media Caste Representation की धार और पैनी हो जाती है।
अंततः, यह बहस केवल स्टूडियो की सीट तक सीमित नहीं रहेगी। अगर न्यूज़रूम डायवर्सिटी इंडेक्स, हायरिंग स्टैंडर्ड्स, ऑन-एयर मॉडरेशन और एडिटोरियल ट्रांस्पेरेंसी पर संस्थागत सुधार होते हैं, तो Media Caste Representation वास्तविक रूप से बदलेगा। वरना यह मुद्दा हर चुनाव-पूर्व सीज़न में फिर उठेगा और दर्शक भी यह प्रश्न पूछता रहेगा कि जिनके बारे में खबरें हैं, क्या वे लोग खुद भी ख़बरों की मेज़ पर बराबरी से बैठे हैं।
इस संदर्भ में बहुजन महिलाओं की यह नई सार्वजनिक मौजूदगी एक टर्निंग पॉइंट दिखती है, जो टीवी बहस को चुनावी रेटोरिक से आगे ले जाकर संवैधानिक समावेशन की रौशनी में परखने की कोशिश है। और यही वह बिंदु है, जहाँ Media Caste Representation सात अक्षरों का कीवर्ड नहीं, बल्कि लोकतंत्र का रियल-टाइम स्ट्रेस टेस्ट बन जाता है।
स्रोत लिंक
- RJD महिला प्रवक्ताओं का आरोप कि कुछ चैनलों में बहस से बाहर रखने का दबाव डाला गया, इस पर हालिया रिपोर्ट। Mooknayak English\
- प्रियंका भारती का हालिया इंटरव्यू, जहाँ उन्होंने टीवी बहसों और बहिष्कार के दावों पर अपनी बात रखी।National Herald


